कश्ती के
मुसाफ़िर को
साहिल की
है दरकार
बिफरा समंदर
अपनी मर्यादा
लाँघ जाता
है कभी-कभार
सुदूर किनारे पर
वो उदास पेड़ की
शाख़ पर
शोख़ हवा की
है शबनमी लहकार
है तसल्ली
बस इतनी
अब तक
साथ निभाती
अपने हाथ
है पतवार।
© रवीन्द्र सिंह यादव
मुसाफ़िर को
साहिल की
है दरकार
बिफरा समंदर
अपनी मर्यादा
लाँघ जाता
है कभी-कभार
सुदूर किनारे पर
वो उदास पेड़ की
शाख़ पर
शोख़ हवा की
है शबनमी लहकार
है तसल्ली
बस इतनी
अब तक
साथ निभाती
अपने हाथ
है पतवार।
© रवीन्द्र सिंह यादव
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