साहित्य समाज का आईना है। भाव, विचार, दृष्टिकोण और अनुभूति का आतंरिक स्पर्श लोकदृष्टि के सर्जक हैं। यह सर्जना मानव मन को प्रभावित करती है और हमें संवेदना के शिखर की ओर ले जाती है। ज़माने की रफ़्तार के साथ ताल-सुर मिलाने का एक प्रयास आज (28-10-2016) अपनी यात्रा आरम्भ करता है...Copyright © रवीन्द्र सिंह यादव All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
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विशिष्ट पोस्ट
बदलीं हैं ज़माने की हवाएँ
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-09-2019) को "महानायक यह भारत देश" (चर्चा अंक- 3471) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। --हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
न झोपड़ी
जवाब देंहटाएंन रही रोटी
राहत फंड से
कौन करेगा मौज़।
ये बातें जनता तक पहुँचाएगा कौन ?
जो प्रबुद्धजनों से है दूर
या बुद्धिजीवी वर्ग ही नहीं है उनके समीप ?
भूख और श्रम के समक्ष जिन्हें नहीं पता कागजों पर लिखा ज्ञान ..।
सादर..
मौज
जवाब देंहटाएंवही करेगा
जो शक्तिमान है
जिसका सिक्का चलता है
जिसके इशारे सूरज निकलता है.
ये
जवाब देंहटाएंबातें
बेकार
जूं न रेंगे
गांधी के कपि
अवसरवादी
जा भला करे राम।
सार्थक पिरामिड ।
ये
जवाब देंहटाएंऊँची
मीनारें
इमारतें
बहुमंज़िला
रहते इंसान
ज़मीर से मुब्तला।... बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय
सादर
वाह!!रविन्द्र जी ,बहुत उम्दा सृजन !
जवाब देंहटाएंवाह बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंक़हर जिस पर बरपा वो रोए बाकी छीन कर खाने वाले तो फंड पर भी अपना हक़ समझेंगे।भला इन्हें किसी की तकलीफ से क्या?
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक,सार्थक पिरामिड
सादर नमन